डोर।
ना सुनाई देती है आहट कोई,
ना होता है कोई शोर,
कभी-कभी इस जीवन में यूँ ही,
बंध जाती हैं कुछ डोर,
बेनाम रिश्तों का दुनिया में,
होता है अलग ही ज़ोर,
कभी-कभी इस जीवन में यूँ ही,
बंध जाती हैं कुछ डोर
ना दिखाई देता है सिरा कोई,
ना नज़र आता कोई छोर,
कभी-कभी इस जीवन में यूँ ही,
बंध जाती हैं कुछ डोर,
उन नाम के रिश्तों से बेहतर हैं ये,
जो अक्सर पड़ जाते कमज़ोर,
कभी-कभी इस जीवन में यूँ ही,
बंध जाती हैं कुछ डोर,
कभी-कभी ये डोर ऐसे,
कर देती हैं भाव-विभोर,
कि जैसे हो महीना सावन का,
और नाचे मन में मोर,
कभी-कभी इस जीवन में यूँ ही,
बंध जाती हैं कुछ डोर।
कवि-अंबर श्रीवास्तव।