डर
डर
माँ मुझको बङा डर लगता है
काँटों से भरा डगर लगता है
गर कन्या होना गुनाह नहीं माँ
तो क्यों घूरता शहर लगता है
हर एक नजर मुझे नोचना चाहे
कत्लगाह एक एक घर लगता है
कदम कदम पे हैं कामुक भेङिए
मुश्किल जीवन का सफर लगता है
बेवफा से हैं सब के सब रिश्ते
अविश्वसनीय हर नर लगता है
सिल्ला क्षीण हो है गई संवेदना
अब एक एक दिल पत्थर लगता है
माँ मुझको बङा डर लगता है
काँटों से भरा डगर. लगता है
-विनोद सिल्ला