झूठ बोलने की
झूठ बोलने की ये कैसी सज़ा पाईं हूं
जिसे अपना कहती थीं आज उनके लिए पराई हूं ।
मंदिर की सिढ़िया चढ़ते -चढ़ते एक बात सीख आई हूं
हवाओं से लड़कर अपनी औकात देख आईं हूं
वफ़ा करके देखा हैं वक्त के जंजीरों से
हासिल कुछ भी ना हुआ मुझे वफ़ा के मुरत से।।
हर तरफ मुहब्बत का चर्चा हो रही हैं
पूछों उन से जिनके पॉकेट से खर्चा हो रही हैं।।
ईमारतों को देखकर ये अंदाजा मत लगाना
कि अंदर सब ठीक हैं वहां भी मूखवटे वाले लोग रहते हैं
तेरी तसबूर ने जीत लिया मुझे
अब प्रश्नों का कोई मतलब नहीं,जब से तुमने अपना कहा मुझे