झनकार
उम्र के
एक दौर पर
आ कर
लगने लगती हैं
अच्छी चूड़ियाँ
रंगबिरंगे हाथ
और रंगीला साथ
संजोये
सतरंगी सपने
करती दहरीज पर
इन्तजार अपने
अपनों का
बार बार सुनती
खनखनाती
चूड़ियों की
झनकार
है सीमा पर
प्यार उसका
सुबह की धड़कन
हर क्षण अड़चन
कैसा है वो
कहाँ होगा वो
गोलियों की गर्जन
मौत में गर्दन
दिलासा देती हैं
चूड़ियाँ
लाया था
जो वो
पिछली बार
आया
एक संदेशा
लुप्त हो गयी
संवेदना
टूट गयी
चूड़ियाँ
हो गये
खाली हाथ
चला गया साथ
नफरत है
उसे अब
चूड़ियों से
नफरत है
उसे अब
रूढ़ियों से
यादों में उसे
बसा कर
पहनती है
अब भी वह
रंग-बिरंगी
चूड़ियाँ
और कंगना भी
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल