जो चला गया विदेश
जो चला गया विदेश
छोड़ कर अपना देश
धार कर वहाँ का भेष
भूला बैठा निज स्वदेश
विदेशी भाषा को बोले
देसी लफ्जों को हैं भूले
बोली है चढ गई डोली
वो भी विदेशी है हो ली
भूल गया सब संस्कार
संस्कृति भी दरकिनार
सभ्यता बलि चढा दी
फूहड़ता गले लगा ली
यहाँ रहते थे निठल्ले
आवारा और थे झल्ले
दिनरात कार्यरत रहते
डालर पोंड जेबे भरते
जिनको लाते डोली में
वो रहती यहाँ खोली में
धनसंचय के चक्कर में
रहते दूर अपने बच्चे से
अमर्यादित असंयमित
हो जाते हैं विखण्डित
माँ बाप सब रिश्ते छूटे
सत्कार सदभाव छूटे
जब आते कभी स्वदेश
बन कर के अप टू डेट
जो थे पहले निसंकोची
बनते पूर्णतया संकोची
जहाँ पर कोई रहता हों
सांस्कृतिक संस्कारी हो
भाषा बोली सत्कार्य हो
सभ्य एवं शिष्टाचारी हो
जो चला गया परदेश
छोड़ कर अपना देश
धार कर वहाँ का भेष
भूला बैठा निज स्वदेश
सुखविंद्र सिंह मनसीरत