जेठ कि भरी दोपहरी
–जेठ की दोपहरी का एक दिया–1
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया दिया जलाने की
कोशिश में लम्हा लम्हा जिये
जिये जा रहा हूँ।।
शूलों से भरा पथ शोलों से
भरा पथ पीठ लगे धोखे फरेब
के खंजरों के जख्म दर्द सहलाते
खंजरों को निकालने का प्रयास
किये जा रहा हूँ।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
दर्द जाने है कितने
जख्म जाने है कितने
फिर भी युग पथ पर
फूल की चादर बिछाए जा
रहा हूँ।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
कभी सपनो में भी नही सोचा जो
वही जिये जा रहा हूँ।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
खुद से करता हूँ सवाल
कौन हूँ मैं ?
आत्मा से निकलती आवाज़
मात्र तू छाया है व्यक्ति
व्यक्तित्व तू पराया है
सोच मत खुद से पूछ मत
कर सवाल मत तू भूत नही
वर्तमान मे किसी हकीकत में
छिपी रहस्य सत्य की साया है।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
कोशिश तू करता जा लम्हो
लम्हो को जिंदा जज्बे से जीता जा
भरी जेठ की दोपहरी में दिया जलाने
कि कोशिश करता जा।।
गर जल गया एक दिया
जल उठेंगे अरमानो के लाखों
उजालों के दिए चल पड़ेंगे
तुम्हारे साथ साथ लम्हो लम्हो
में एक एक दिया लेकर युग
समाज।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर.
जेठ की भरी दोपहरी-2
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने की कोशिश में लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
भूल जाऊँगा पीठ पर लगे धोखे
फरेब मक्कारी के खंजरों के
जख्म दर्द का एहसास।।
तेज पुंज प्रकाश मन्द मन्द शीतल
पवन के झोंको के बीच खूबसूरत
नज़र आएगा लम्हा लम्हा।।
चट्टाने पिघल राहों को सजाएँगी
शूल और शोले अस्त्र शस्त्र
बन अग्नि पथ से विजय पथ ले जाएंगे।।
चमत्कार नही कहलायेगा
कर्मो से ही चट्टान फौलाद पिघल
जमाने को बतलायेगा।।
लम्हा लम्हा तेरा है तेरे ही वर्तमान
में सिमटा लिपटा है तेरे ही इंतज़ार
में चलने को आतुर काल का करिश्मा कहलाएगा।।
पिया जमाने की रुसवाईयों
का जहर फिर भी जेठ की भरी दोपहरी जला दिया एक चिराग दिया।।
जिससे भव्य दिव्य है युग वर्तमान
कहता है वक्त इंसान था इंसानी
चेहरे में आत्मा भगवान था।।
बतलाता है काल सुन ऐ इंसान
मशीहा एक आम इंसान था
जमाने मे छुपा जमाने इंसानियत
का अभिमान था।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर
—–जेठ की भरी दोपहरी -.–3
अपने हस्ती की मस्ती का मतवाला
अपनी धुन ध्येय का धैर्य धीर गाता
चला गया जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाता चला गया।।
जेठ की भरी दोपहरी में एक
दिया जलाने की कोशिश में
लम्हा लम्हा जीता चला गया
जमाने को जमाने की खुशियों
से रोशन करता चला गया।।
ना कोई उसका खुद कोई अरमान था
एक दिया जला के जमाने को जगाके
जमाने के पथ अंधकार को मिटाके
जमाने का पथ जगमगा के ।।
लम्हो को जिया जीता चला गया
कहता चला गया जब भी आना
लम्हा लम्हा मेरी तरह जीना मेरे
अंदाज़ों आवाज़ों खयालो हकीकत
में जीना मरना ।।
जेठ की दोपहरी में एक दिया
जलाने जलाने की कामयाब कोशिश
करता जा जिंदगी के अरमानों अंदाज़
की मिशाल मशाल प्रज्वलित करता जा।।