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22 Nov 2018 · 1 min read

जीवन

न जाने किस कश्मकश मे जिए जा रहा हूँ,
मिट्टी के इस बोझ को ढोए जा रहा हूँ।
जिंदगी की इस भाग-दौड़ में जीने की नकल किए जा रहा हूँ,
न जाने किस कश्मकश मे जिए जा रहा हूँ,
बचपन गवा दिया बड़े होने की चाह में,
अब फिर से बचपन मे जाने की तमन्ना दिल में लिए चला जा रहा हूँ।
मिट्टी के इस बोझ को ढोए जा रहा हूँ,
न जाने किस कश्मकश मे जिए जा रहा हूँ,
देखा है दुनिया को गिरगिट की तरह रंग बदलते,
पराये हुए वो सब जो अपनापन थे जताते।
आखिर में वही अर्थी और लकड़ी की सेज होगी,
मंजिल तो यही थी बस थोड़ी देर हो गई।
न जाने किस कश्मकश मे जिए जा रहा हूँ,
मिट्टी के इस बोझ को ढोए जा रहा हूँ।

गुरू विरक
सिरसा (हरियाणा)

Language: Hindi
2 Likes · 1 Comment · 273 Views
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