मैं प्रगति पर हूँ ( मेरी विडम्बना )
मैं प्रगति पर हूँ
आदम से आदमी बन गया हूँ
प्राचीन से आधुनिक बन गया हूँ
ना मानवता की फिक्र मुझे
ना प्रकृति की फिक्र मुझे
मैं मनमानी करता हूँ
खुदा तो नहीं हूँ
पर खुदा से कहाँ डरता हूँ
रोज नए-नए प्रयास कर रहा हूँ
प्रकृति का ह्रास कर रहा हूँ
मैं रंगीन शाम चाहता हूँ
नई ख्याति नया नाम चाहता हूँ
अहं ने किया है बेसब्र मुझे
नहीं रहा अब सब्र मुझे
बेशक मैं विकाश कर रहा हूँ
विनाश पर विनाश कर रहा हूँ
दिन-रात कमाता हूँ
जरुरत से ज्यादा ही चाहता हूँ
चाहत ने बनाया व्यग्र मुझे
मिल जाए समग्र मुझे
स्त्रोत सब ध्वस्त कर रहा हूँ
मानवता को पस्त कर रहा हूँ
नफरतों को पालता हूँ
ह्रदयों को सालता हूँ
रिश्तों को ताक पर रखता हूँ
स्वार्थी हूँ जान भी ले सकता हूँ
बारूद के ढेर लगा रहा हूँ
हकीकत सुना रहा हँ
सम्पदा विलुप्त कर रहा हूँ
संवेदना को सुसुप्त कर रहा हूँ
इस बात की है खबर मुझे
मिलनी है एक कब्र मुझे
मैं बहुत दौलत कमा रहा हूँ
हसरतों का मैं अंधा हूँ
दो हाथ कमा रहा हूँ
तो चार हाथ लुटा रहा हूँ
अंजान चाहतों में
खुदा ही नहीं
खुदाई को मिटा रहा हूँ
‘V9द’ मैं अब अति पर हूँ
न जाने कौन सी प्रगति पर हूँ
मैं प्रगति पर हूँ