जीवन की जर्जर कश्ती है,तुम दरिया हो पार लगाओ…
जीवन की जर्जर कश्ती है,तुम दरिया हो पार लगाओ…
दिल के बचैनी मौसम में , फूलों की बौछार लगाओ।
जीवन की जर्जर कश्ती है…..
बहुत अचंभित मैं होता हूं,सुन अश्रव्य पुकारों को।
तितली से ही आशा होगी, फूलों की हसीं बहारों को।
जीवन में सब होना तय है,निकला हूं मैं यही मानकर…
किंतु कुछ अनहोनी करने,कान्हा का जयकार लगाओ।
जीवन की जर्जर कश्ती है…..
एक अभागा बन बैठा हूं, क़िस्मत के कच्ची लेखा पर…
आज सितारा टूट न जाए,सूरज की जलती रेखा पर।
द्वंद समेटे चलता जाऊं,कब तक सूरज रश्मि देगा…
तुम दीपक की बाती बनकर,साथ जलो उजियार लगाओ।
जीवन की जर्जर कश्ती है…….
एक अकेला मैं नाविक हूं,इस सुनसान समंदर में…
सिर्फ़ तुम्हीं कलशित हो मेरे ,,मनोभूमि के बंजर में।
दुनियां भर की बातें छोड़ो,उनसे क्या लेना देना है…
पत्थर से रसधार बहेगी,किंचित भर बस लाड़ लगाओ।
जीवन की जर्जर कश्ती है…….
अभियंता दीपक झा “रुद्रा”