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15 May 2024 · 3 min read

जीने का हक़!

मुझे तो पूरी जमीन चाहिए,
पूरा आसमान चाहिए।
चाहिए पर उड़ने को,
और एक उड़ान चाहिए।
रोक सके कौन मुझे,
इतना दम यहाँ किस में?
मैं सीता मिट्टी से जन्मी,
समा जाऊंगी मिट्टी में ही।
कहते है सब मैं हूँ देवी,
हूँ शक्ति के स्वरूप सी।
इतनी समाई मुझमें शक्ति,
दुष्कर कुछ भी मेरे लिए नहीं।
माथे पर तेज सजी,
और हृदय में प्रेम अपार भरी।

फिर क्यूँ दुनिया की नज़रों से
डरती सहमती ‘पूज्य’ मैं।
बिन कुछ किए ख़ौफ़ज़दा मैं,
और भेड़िएँ बेख़ौफ़ घूम रहे।
रोक लगा दिया उड़ान पर,
काट दिए बेदर्दी से पर मेरे।
घोंट दिया गला सपनों का
और रोक दिया उड़ान बीच में।
धकेल दिया रास्ते में ही,
दफ़न कर दिया अरमानों को मेरे।
नहीं गिरी इतने पर भी तो,
बल का नाजायज़ प्रयोग किए।
हड़प लिया मेरी सारी जमीं
निगल गए हक़ का आसमाँ मेरे।

ये भी तो मैंने झेल लिया था,
फिर क्यूँ नहीं रुके, नहीं थमे
मेरे रूह पर कर रहे दिन-रात वार।
क़त्ल किया आत्म-सम्मान का,
मार दिया मेरा आत्म विश्वास।
कैसे अब भी क्या चुप रहूँ?
बोलो, खून नहीं खौलता क्या
कभी मेरे लिए तुम्हारा भी?
बोलो, जी नहीं करता क्या
शस्त्र अब उठा ही लूँ?
साथ लड़ने का करता
तुम्हारा भी मन नहीं क्या?
कदम से कदम मिला कर
चलने की हिम्मत नहीं रखते क्या?

ना मैं ‘निर्भया’, ना ही ‘आशा’,
ना मैं कमज़ोर की परिभाषा।
तन से शक्ति कम है तो क्या,
मन से तो तुम बीमार हो,
कमज़ोर हो, लाचार हो।
अपनी शक्ति आज़माने को,
मेरे साथ अत्याचार करते।
अपना परचम फहराने को,
जबरदस्ती से बलात्कार करते,
मरने तक को छोड़ जाते।
अपना पुरुषार्थ दिखाने को,
बोटियाँ तक तो नोच डालते।
मुझ पर अधिकार जताने को
मर्यादा तक का तो उल्लंघन करते।

कटघरे में फिर भी खड़ा,
सरे आम मुझे किया जाता।
वहाँ बीच सब के खड़े,
इज़्ज़त नीलाम किया जाता।
मुझे देना पड़ता है जवाब,
दोष दिया जाता बार-बार।
नज़रें ख़राब तेरी रही,
लगाया गया चरित्र पर मेरे दाग।
गलती थी तो बस इतनी ना,
कि मंज़ूर नहीं थी दासता तेरी।
सपने पूरे करने को निकल,
पड़ी थी बाहर छोड़ घर बार।
अपने पैरों पर खड़े होने के,
प्रयास में जुटी थी मैं अकेले।

सुनो! तलवार उठा लूँगी तो,
सर्वनाश निश्चित है।
काली बन जाऊँगी तो,
संहार निश्चित है।
उस संहार में फिर ना होगा फ़र्क़,
कौन है अपराधी कौन निष्कपट।
फिर ना कहना चेताया नहीं,
सब रो के कभी सुनाया नहीं।
ममता भूल गयी अगर मैं,
तो दोष मुझे देना नहीं।
जब जगाया रात में तुमको तो,
आँखे और मूँद ली तुमने भी।
रात में मैं लहूलुहान होती रही,
और तुम ज़ारे में सोते रहे।

ना चाहिए पूरी जमीं,
पूरा आसमान ना ही सही।
एक कोना ही दे दो,
और उस कोने में शांति से जीने दो।
आशा नहीं तुमसे मदद की,
अपने दम पर जीने दो,
बस काफ़ी है वहीं।
अब मैं वो अबोध नहीं,
जिसे चाहिए था पूरा जमीं।
उड़ान की चाह नहीं अब,
चलने को सुरक्षित राह दे दो बस।
ना ख़्वाईश पर के अब मुझे,
अब तो बस सम्मान दे दो,
और उस सम्मान से जीने का हक़।

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Books from कविता झा ‘गीत’
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