जिंदगी है कि जीने का सुरूर आया ही नहीं
जिंदगी है कि जीने का सुरूर आया ही नहीं
वह मुझसे मिलने कभी बाहर आया ही नहीं !
मेरे अंदर से होकर के गुजरे हैं कई मौसम
रास्ते में रहा मुसाफिर का घर आया ही नहीं!!
कई पहर ए जिंदगी इंतजार में ही गई
वह मेरे जहन से बाहर आया ही नहीं!
जिस कदर मैंने उसकी राह तकी है बरसो
मुझसे ज्यादा उसे किसी ने चाहा ही नहीं!!
तमाम खत पढ़े जो शहर से लाया डाकिया
उसके रास्ते से कोई खत आया ही नही…. !
कहीं फूलों की महक से गुजर गए मौसम
उसकी खुशबुओं का समा आया ही नहीं!!
मेरे कानों में पायल की खनक आज भी है,
और दिल में कैद उसके कई राज भी है !
आंखों में उसका मंजर जो कैद में है,
लबों से किसी को कभी सुनाया नहीं।।
✍️कवि दीपक सरल