जान की कीमत (लघुकथा)
श्रावण मास हरियाली सोमवती अमावस्या नर्मदा तट होशंगाबाद में यात्रियों की भीड़ जुटी थी। एक परिवार स्नान की तैयारी कर रहा था, तब ही एक किशोर भाई बहन फटे-पुराने, काले-कलूटे कपड़ों में “फूल-बेलपत्री ले लो, 5 रुपए में फूल-बेलपत्री ले लो” आवाज लगाते हुए वहां से गुजर रहे थे तभी उस परिवार के मुखिया ने डांटते हुए उनसे कहा भागो यहां से, तीर्थों में सब चोर उचक्का बेईमान उठाईगिरे घूमते हैं नजरें बचाकर कपड़े -लत्ते पैसे-धेले मार देते हैं ध्यान रखना, एक-एक कर नहाना। बहन भाई बिना कुछ बोले आगे चले गए ।परिवार नहाने में मगशूल हो गया। इसी बीच आवाज आई अरे मंटू नहीं दिख रहा उसकी मां तो नहाने गई है। दो-तीन साल का मंटू मां के पीछे पीछे तट से नर्मदा में गिर, बह रहा था, बचाओ -बचाओ की चीख-पुकार के बीच वे काले-कलूटे भाई बहन उसे कूदकर बचाने में सफल हो चुके थे। मंटू के पेट में पानी चला गया था, भाई-बहन जानकार थे उन्होने मंटू को उल्टा कर पानी निकाला और उसकी मां को सौंप दिया। जाते हुए उन भाई बहन को परिवार का मुखिया, जो कुछ देर पहले चोर उचक्का उठाई गिरा कह रहा था 500 रुपए देने लगा। भाई-बहन ने कहा बाबूजी पोते की जान की कीमत ₹500 दे रहे हो? मुखिया ने कहा कुछ और ले लो, उन्होंने कहा नहीं बाबू जी हमें कुछ नहीं चाहिए। हम तो केवट हैं, नर्मदा जी हमें बहुत देती हैं, हम तो एक नारियल के लिए दिनभर छलांग लगाते रहते हैं। आप तो प्रसाद चढ़ा देना, कन्या जिमा देना। बस एक बात जरूर कहे देते हैं हम सरीखे गरीब मजबूरों को चोर उठाईगीरे मत कहना बस एतना कहकर अपना झोला उठाए “फूल-बेलपत्र ले लो, पांच रुपए में फूल-बेलपत्री ले लो” कहते हुए वे आगे निकल गए। मुखिया बहुत शर्मिंदा हो, ऋणी निगाह से उन्हें देखते रह गया।