जादूगरों की जान
सहमी, दुबकी बैठी दुनिया, बिल्कुल चुप्पौ चाप,
आँखें फाड़े देखै, कैसा मचा हुआ संताप,
चलते फिरते पुर्ज़ों की भी, हरकत ऐसे बंद हो रही
जीवन की गाड़ी की जैसे निकले जाये भाप
नीली हरी गेंद को थामे क़ुदरत अचरज करती है,
ये है वो आदम का जाया जिसने नापी धरती है?
सहरा, जंगल, गुलशन, दरिया, बांध लिये, जो कहता था,
चारदीवारी में है दुबका, ज़र्रे की सी हस्ती है!
स्याह इबारत खबरों की में, रोज़ मौत के हर्फ़ हैं पढ़ते
ऊँचे परबत, गहरी खाई, रोज़ उतरते, रोज़ हैं चढ़ते
अपने अपने सजदे-पूजा, अपने मन के संबल से
कुछ घर बैठे, कुछ सड़कों पर, जीवन के संग्राम हैं लड़ते
काली चादर क़ायनात पर, एक से रोशन दूजी जान,
एक तार ने बाँधा सबको, साँस-आस की एक ही तान,
रंग पिघल गये चमड़ी के सब, नक़्शों की दीवारें ढह गईं
तोते खुले हैं उड़ते फिरते, अटकी जादूगरों की जान
– राहुल गौड़, गुड़गाँव