ज़िन्दगी एक किताब
मैं जब देखता हूँ अपनी जिन्दगी को,
जिन्दगी एक किताब नज़र आती है,
इसके हर एक पन्ने को गौर से देखा,
जिन्दगी बेबस लाचार नज़र आती है।
इसके कुछ पन्नों में कहानी लिखा है,
पर कुछ पन्नें तो बिलकुल ही कोरे हैं,
कुछ कहानियाँ जीवन के पूर्ण हुए,
तो कुछ कहानी अभी भी अधूरे हैं।
इन पन्नों में खुशियाँ है तो ग़म भी है,
कहीं ज्यादा है तो कहीं कम भी है।
इनमें जीवन में छाये बहार भरपूर हैं,
कहीं पर खुशियाँ हमसे कोसों दूर है।
इन पन्नों में कहीं चिलचिलाती धूप है,
तो कहीं पर तरु की शीतल छाया है,
कहीं जीवन की ठण्ढी बहती बयार है,
तो कहीं आशा निराशा से टकराया है।
जिन्दगी क्या है कोई नहीं जान पाया है,
जो जाना उसके लिए मात्र मोह-माया है,
‘जिन्दगी एक किताब’ सबने बतलाया है,
पर पूरे पन्नों को कोई नहीं पढ़ पाया है।
?? मधुकर ??
(स्वरचित रचना, सर्वाधिकार © ® सुरक्षित)
अनिल प्रसाद सिन्हा ‘मधुकर’
जमशेदपुर, झारखण्ड।