ज़िंदा घर
सन्नाटा है घर के अंदर टपक रही है और छत भी,
लगता है तन्हाई में मैं ये घर भी छुप छुप रोता है।
कभी बबूल भी उगा नहीं था जब हम घर में रहते थे,
अब तन्हाई के डर से आंगन खरपतवारें बोता है।
अभी सलामत नाम का पट्टा घर के बाहर लटका है,
लेकिन ये भी मिट जायेगा वक्त सभी कुछ धोता है।
संदूक पड़ा था जिस कोने में वो अब गिरने वाला है,
जल्दी आ जाओ परदेशी घर अब धीरज खोता है।
अभी बचा है तेल दिये में दियासलाई ले आना,
अपने हो जब साथ तो भाई दुगुना उजियारा होता है।
✍️ दशरथ रांकावत ‘शक्ति’