ज़िंदगी की दौड़
सारी दोपहरी ढूँढने एक छाँव को चलता रहा
आगे मिलेगा शजर कोई मान के चलता रहा
आग बरसी सब तरफ़ फिर मैं था पानी ढूँढता
इक बूँद हासिल न थी फिर भी मैं चलता रहा
जाना कहाँ है उस डगर का नामोनिशाँ कोई न था
सब चल रहे थे भीड़ में चुप और मैं चलता रहा
जाने कहाँ पर इक जगह ज़िंदा मरा पढ़ लिया
कोई मुझे मुर्दा न समझे इसलिए चलता रहा