जवानी से
उम्र गुजरेगी कब गुल-फ़िशानी से
यक़ीं उठ गया यार हर कहानी से
कैसा गुमाॅं कैसी ख़ुशी कौन सा ताज़
रंज के सिवा मिला हि क्या ज़वानी से
मुझको ने’मत में देना है तो अज़ाब दो
उकता गया हूॅं अब बातिल शादमानी से
वैसे तो कोई छु नहीं सकता परछाई भी
वैसे मारा जाता हूॅं अपनों की बद-गुमानी से
हो सके तो खुदा मिरी इक दुआ कुबूल कर
मुझको मुहब्बत है मर्ग – ए – ना – गहानी से
जी तो करता है छु लूँ उसको लबों से कामिल
मगर डर लगता है उसके आरिज़ ए पासबानी से
@कुनु