“शहीद साथी”
जब सारा देश जीती हुई जंग की ख़ुशी मना रहा था,
तब एक फौजी अपने साथी की जान बचाने की जंग लड़ रहा था,
अपनी गोद में बैठा कर उसको लंबी ज़िन्दगी के झूठे वादे दे रहा था,
वो जान रहा था साँसे मेरे साथी की महज़ चंन्द घड़ियों की मेहमान थी,
फ़िर भी उसको कंधे में बैठा कर वो कैंप की और दौड़ रहा था,
ना जज़्बात उसके काबू में थे और ना था वक़्त,
कैसे एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिलाए अपने देश के लिए लड़ रहे थे जंग याद आ रहे थे उसको ये सब पल,
टूटी साँसे निकला उस फौजी के साथी का दाम था,
मौत की गोद में जाते हुए उसने अपने साथी को जो दिया वो ज़िंमेदारी से भरा एक खत था,
खत में थे उसके शब्द उसकी याद और ज़िंदा उसके जज़्बात,
डर बस उसको इतना था कैसे देखेगा उस माँ की आँखों में जिसने खोया है बेटा अपना, दिल में है हजारों सवाल पर मौन होगा चेहरा उसका,
कैसे देखेगा उन आँखों को जिसने खोया है पति अपना, पूछेंगी वो बेवा की निगाहें क्यों लौट ना सके वो जो हर वादा निभाते थे,
पूछेंगी वो नन्ही सी आँखे सवाल कई, क्या लौटेंगे हमारे पिता कभी?
यही सब सोच कर उस फ़ौजी का दिल घबरा रहा था, जंग में लड़ना आसान है या एक चिट्ठी के साथ उन सब आँखों को देखना वो जंग है, ये सवाल भी उस वक़्त सवाल ही रह गया,
जब सारा देश जीती हुई जंग की ख़ुशी मन रहा था,
तब एक फौजी अपने साथी की जान बचाने की जंग लड़ रहा था।
“लोहित टम्टा”