जब विस्मृति छा जाती है, शाश्वतता नजर कहाँ आती है।
जब विस्मृति छा जाती है, शाश्वतता नजर कहाँ आती है,
फैलता है जब अँधेरा घना, आँखें भी धोखा दे जाती हैं।
जिन पथों पर कोई चला नहीं, अनजानी वही कहलाती है ,
जो साहसों की आभा संग हो तो, हर पथ गंतव्य तक पहुंचाती है।
प्रश्नों से भय करना क्यों, वही तो उत्तरों की नदी बहाती है,
जो स्वयं के आरम्भ से मिलो तो, वो रक्तरंजित चित्त कहाँ दिखाती है।
भय तो मूलतः एक प्रतिच्छाया सी, जिसे विचारों की अपरिपक्वता बनाती है,
वो अन्तर्निहित ज्ञान की जागृति, संशयों से ऊपर उठाती है।
अवरुद्धता जब जमीं पर आये, आकाश की विशालता विकल्प बताती है,
निराशाएं जब सूरज को डुबाये, आशाएं दीपों के मेले लगाती है।
कानों में असत्य की गुनगुनाहट, अन्धकार की अधीनता से मिलाती है ,
पर मृत शब्दों की गरिमा हीं क्या, जो सत्य की निःशब्दिता से टकराती है।
आस्था स्वयं में संचित हो तो, समय नवआयामों के द्वार खुलवाती है ,
एक उज्जवल मुस्कान की झलक, असंख्य कष्टों की नींव मिटाती है।