जब बेटी जा रही थी
जब बेटी जा रही थी
माँ रो रही थी |
मैंने पिता को ढुंढा,
वो विरह का क्षण बर्दाश्त न कर पाने की शक्ति के कारण
पता नहीं कहाँ चला गया है,
विदाई के बाद ही लौटेगा,
और
बहुत दिनों तक चुप रहेगा |
माँ की रोते -रोते आवाज रूंध जाएगी |
जब बेटी जा रही थी,
भाई बहुत सारे पसरे काम को
जल्दी – जल्दी समेट रहा था |
जरा – जरा सी बात पर झुंझला उठता था,
कोई उसे टोके
उसे पसंद नहीं था,
ऐसा लग रहा था
कि बोलेगा तो वो भी रोने लगेगा
फिर कैसे, क्या होगा… |
बेटी के जाने के समय,
जब चाची , काकी, दादी, मौसी
और सारे परिजन
रोते हुए रिवाजों को पूरा कर रहे थे |
दरवाजे पर बंधी गाय पर मेरी नज़र पड़ी –
वो उदास आँखों से देख रही थी
और भूल ग ई थी पगुराना |
दरवाजे पर आम
और अमरूद के जो दो वृक्ष थे,
हवा बहने के बावजूद,
स्थिर खड़े थे – मौन!
अब बेटी चली गई थी
और पूरा गाँव
अनमने ढ़ंग से रोटी चबाकर
बिस्तर पर बदल रहा था करवट…