*जब जीना ही हर हाल है*
जब जीना ही हर हाल है
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जब जीना ही हर हाल है,
फिर क्यों चिंता मलाल है।
लोभ,मोह,क्रोध ले डूबता,
माया ठगनी फैला जाल हैं।
मौकापरस्त बन कर लूटते,
ये रिश्ते जी का जंजाल है।
गिद्ध सरीखे मांस हैं नोचते,
मांस रहित तन कंकाल है।
जोंक बन कर रक्त है चूसते,
बदन थक हार निढाल है।
अकेले अकेले हैं लड़ रहे,
कोई भी नहीं बनता ढाल है।
कोई भी न रोकता टोकता,
मुफ्त में ही बंट रहा माल है।
छांट छांट क्या तू है देखता,
यह सारी ही काली दाल है।
बदली आबोहवा मनसीरत,
बदली बदली सी चाल है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)