जब चलती पुरबैया बयार
ग्रीष्म के तपते मौसम में
अब के एकाकी जीवन में,
जीवन के दोपहर में,
जब अंग-अंग बदरंग,
न पचता मीठा-तीखा,
न खाता तेल-मशाला,
जीवन हो जेल-सरीखा;
जब चलती पुरबैया बयार,
तब आती धुंधली-सी याद,
बचपन की मीठी बात,
न चिंता पढ़ने-लिखने की,
न चिंता खाने-पीने की,
बारिश हो तो धूम मचाना,
छप-छप करते दौड़ लगाना,
कागज की फिर नाव चलाना,
छोटे मेढक को खूब तैराना,
आती ये मीठी याद,
जब चलती पुरबैया बयार।
मौलिक व स्वरचित
©® श्री रमण
बेगूसराय (बिहार)