जन्म से मृत्यु तक का सफर
जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर
“जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर” यह पंक्ति सुनकर ही हर किसी को घबराहट होने लगती है पर जीवन का सत्य यही है कि जो प्राणी इस धरती पर आया है उसे एक दिन यहां से हमेशा के लिए विदाई लेनी है मनुष्य का जीवन का सफर जन्म से लेकर मौत के बीच का होता है , यही सफर उसके लिए कभी अमृत तो कभी विष का काम करती है । दुनिया से जाने के बाद यही सफर हमारे चरित्र का प्रमाण देता है कि हम कौन थे? कैसे थे ? कहां से आये थे ? तमाम प्रश्नों का उत्तर यही हमारे जीवन का अच्छा व बुरा सफर तय करता है , जन्म यह एक ऐसा प्रणाली है जो हमें इसे दुनिया में लाता है , लोगों से हमारा रिश्ता बनाता है , हमारे आने की खबर तो नौ महीने पहले ही मिल जाती है क्योंकि हम मां के नजरों से पूरी दुनिया देख रहे होते हैं नौ महीने बाद हम एक नयी दुनिया में पहली बार अपनी आंखें खोलते हैं सबकुछ अलग सा होता है शायद इसी वजह से हम आते वक्त बहुत रोते हैं पहली बार हम अपनी मां को देखते है और चुप हो जाते हैं , मां हमें नयी दुनिया से रूबरू कराती है वह बताती है कि यह तेरे पिता, तो यह तेरे दादा है और सब हमें फूल की तरह सीने से लगा कर रखते हैं हमारा रोना खाना-पीना सब दूसरों के हाथों होता है फिर हम थोड़े बड़े हो जाते हैं और पहली बार बोलना सीखते हैं स्कूल जाना सीखते हैं नयी दुनिया से मुलाकात होती है जहां हम अब भी बच्चे ही है ….
फिर धीरे-धीरे परिवार समाज हर चीज हमें समझ आने लगता है पढ़ाई की चिंता, नौकरी का तनाव, अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को समझना इत्यादि हम महसूस करने लगते हैं जो मिलता बस यही पूछता कि आगे क्या करने को सोचा है , जिंदगी बस ऐसे ही निकलने लगती है …
फिर हम जीवन के उस पड़ाव पर पहुंचते हैं जहां एक नये परिवार से हमारा रिश्ता जुड़ता है , जहां लड़कों के ऊपर परिवार की ज़िम्मेदारियों का वज़न और बढ़ जाता वह दो रिश्तों के बीच की वो कड़ी होते हैं जो मां और अपनी अर्धांगिनी के बीच तालमेल बैठा कर रखते हैं और लड़की अपना परिवार अपने बचपन का आंगन छोड़ दूसरे परिवार को अपना बनाने और सजाने लगती है अब वो एक बेटी के साथ -साथ बहु का भी फर्ज बखूबी निभाती है उसकी एक ग़लती भी उसके सौ अच्छे कामों को व्यर्थ कर देता ….
अब हमारा परिवार बढ़ने लगता है और बच्चों के पढ़ाई, खाना- पीना, पहनावा उसके शौक पूरे करने में हमारी उम्र गुजर जाती है , इस समाज के हिसाब से उसे बनाने में निकल जाता है उसे हर चीज ब्रांडेड दिलानी होती है चाहे खुद के पास टूटी हुई चप्पल और फटी हुई बनियान हो हम यह कहकर टाल देते कि अरे कोई चप्पल नहीं देखता और बनियान वो तो कपड़ों के अन्दर होगी मां कहती कि यह साड़ी अभी तो ली है चाहे वो चार साल पूरानी क्यों ना हो फिर धीरे-धीरे परिवार बच्चों की पढ़ाई में अपनी जिंदगी को कहीं पीछे छोड़ देते अब बच्चों के जीवन की मंजिल बसाकर हम बुढ़े हो जाते जहां हमें पूछने हमारे बच्चे भी ना आते और जब बात हमें रखने की आती तो जिन चार बच्चों का पालन – पोषण मैंने अकेले किया वो आपस में लड़ते हैं कि मैं ही क्यों? कुछ समय में आंखें भी धोखा दे जाती दांत भी झड़ जाते खुद से उठना बैठने में हम असमर्थ हो जाते तब सब ऐसे ताने देते जैसे हम कोई बोझ हो जिसे अब हर कोई निकाल फेंकना चाहता है …
देखते-देखते एक दिन जीवन की परीक्षा में हम उर्तीण होकर हम सबकुछ छोड़कर अपनी आंखें सदा के लिए बन्द करके कहीं उड़ जाते हैं…
स्वर्ग – नर्क (जन्नत -जहनूम) का तो मुझे नहीं पता पर इतना पता है कि जीवन रहते अगर किसी की मदद कर सके किसी के काम आ सके तो स्वर्ग (जन्नत) यही है वरना सब नर्क है और अन्त में या तो राख बनकर मिट्टी में मिल जाते या यह मिट्टी का शरीर मिट्टी में दफ़न होकर मिट्टी में मिल जाता ।
जहां आने की खबर नौ महीने पहले हो जाती वही मुत्यु की खबर कुछ घंटे पहले भी ना होती जीवन का पहला स्नान भी किसी और ने कराया और आखिरी स्नान भी किसी और के ही हाथों ही हुआ।।
अगर इस लेख में कहीं कोई त्रुटी हो तो मुझे क्षमा करें मेरा उद्देश्य किसी के दिल को ठेस पहुंचाना नहीं है यह बस एक जीवन का सत्य है जो मैनै एक लेख के माध्यम से प्रस्तुत किया ।
धन्यवाद