जंजालों की जिंदगी
जंजालों की जिंदगी
जंजालों की है जिंदगी
जरूरतें बड़ी-बड़ी
मैंने खुद सजाया इनको
पल-पल घड़ी-घड़ी
बच्चे मांगे एक रुपैया
मैं थमाता दस
बस इतनी सी बात रही
सांझ ढले बेबस ।।
सोना, चांदी, हीरे मोती
इच्छाओं के गुच्छ
गिन-गिन तारे रतजगा
रिश्ते-नाते तुच्छ ।।
मोर पंख से बांह पसारे
हरे-सुनहरे अर्क
टूटे घुंघरू, थमा नृत्य
जब-जब देखा फर्श।।
अतृप्त चारों दिशाएं
आलोचना के द्वार
प्राण देह नित पूछते
कब चलोगे पार।
* सूर्यकान्त द्विवेदी