छलावा बन गई दुल्हन की किसी की
मुहब्बत का जनाजा उठ रहा है…
छलावा बन गई दुल्हन की किसी की।
यहांँ पर रूह ही बिखरा पड़ा है
तुम्हें परवाह है बस ज़िंदगी की।
शहर में आज ठंडक ही मिलेगी
खुमार ए जश्न में डूबेगी महफ़िल
खुशी से चूम लेगा उसको आशिक
जरूरत क्योंँ पड़ेगी रोशनी की।
मुझे ठुकरा के अब वो जा चुकी है
दुआ है हर खुशी मिल जाए उसको।
मयस्सर हो हजारों काफ़िला पर…
कमी हो मुझसा पागल आदमी की।
मगर मौला मुझे अब तो सुकूंँ दो
बचा कुछ भी नहीं खोऊंँगा किसको….
पतंगा जल न जाए मुझको छूकर
बहुत सहमी है रातें चांँदनी की।
तुम्हारी वो बदन जिसपर ग़ज़ल थी
हमारी इश्क़ की अंगड़ाईयोंँ की।
उसे कर आई हो किसके हवाले
कभी तो दर्द समझो शायरी की।
वो खेलेगा तुम्हारे जिस्म से भी….
वो नोचेगा तुम्हारी आबुरू को
हमने बेदाग रखा था तुम्हें पर…
जहां में इश्क़ है अब जिस्म़गी की।
मुझको धोखा दिया है ठीक फिर भी
मैं तन्हा था तो तनहाई मिली है।
अकेले जी ही लूंँगा मैं यकीनन
कसम है ज़ाम साकी मयकशी की।
दीपक झा रुद्रा