चेहरा
चेहरा..
न जाने कब..कैसे …
अपनी मोहक छवि का परिचय देता
कितनी ही आंखों का आकर्षण बन जाता है
न जाने कब कैसे ..
उन अपरिचित….अनभिज्ञ सी
आंखों की पहली और कदाचित अंतिम भी
पसंद बन जाता है
न जाने कब कैसे ….
उनकी डगर बन
मन मस्तिष्क तक का सफर कर
हृदय में नई तरंगे .. नए स्वप्न
बन जाता है
अस्तित्व देता है एक नए व्यक्तित्व को
जो उन आंखों के साथ इन का भी पूरक बन जाता है
फिर…
न जाने कब..कैसे..
ऊब जाती हैं वो आंखें
पता नहीं इस चेहरे को देखकर
या… किसी नए की आस में….
तब एक दिन …
न जाने क्यूं…कैसे …
प्रताड़ित सा… थका सा…
नीरव सा…नीरस सा ..
न जानें कब… कैसे …
अदृष्य हो जाता है ..|