चेतना हो? निसंदेह
निर्झर की झर झर मेंं,
नदियों की कलकल मेंं,
सागर की सरगम मे,
कौन हो तुम?
चेतना हो?
निसंदेह।
विहगों के कलरव मेंं,
भ्रमरों के गुँजन मेंं,
कोकिल के मधु स्वर में,
कौन हो तुम?
चेतना हो?
निसंदेह।
मेघों के गर्जन में,
वर्षा की रिमझिम मे,
सूरज के ताप मे,
कौन हो तुम?
चेतना हो?
निसंदेह। पदों के लालित्य में,
शब्दों के सौष्ठव मे,
कविता माधुर्य मेंं,
कौन हो तुम?
चेतना हो?
निसंदेह।
–मौलिक एवम स्वरचित–
अरुण कुमार कुलश्रेष्ठ
लखनऊ (उ.प्र.)