चूल्हे की रोटी
अब तो दिवास्वप्न सी लगती है
वो चूल्हे की रोटी,
जिसे बड़े प्यार से माँ अपने हाथों से बढ़ाकर
गोल गोल बनाकर चूल्हे पर सेंकती थी
और हमें बड़े लाड़ से परोसती थी।
जिसमें होती थी सोंधी सी खूश्बू
और मां का वात्सल्य,
जिसका स्वाद आज भी याद आता है,
सच कहूं तो उस खाने में जो आनंद आता था
आज गैस पर सिंकी रोटियों का स्वाद
उसके आसपास भी नहीं फटकता है।
क्योंकि आज की रोटियों में
आधुनिकता का रंग साफ नजर आता है,
मां गेहूं के आटे के अलावा
मटर,चना, मक्का और जाने क्या
खुद पीसकर मिलाती और रोटियां थी
जिससे स्वाद के साथ पौष्टिकता भी मिलती थी,
जिससे सिर्फ भूख ही नहीं मिटती थी
मन भी भर जाता था,
क्योंकि उन अनाजों की उपज
अपने खेतों से आता था
जिसमें बाबा, पापा, ताऊ, चाचा और
हम सबका भी शारीरिक श्रम लगता था,
खेतों गाय बैल, भैंसों के गोबर का भंडारित
देशी खाद ही पड़ता था
रासायनिक खादों से दूर दूर तक
कोई रिश्ता नाता नहीं था।
तब उन रोटियों, भोजन में जो स्वाद
और तन को ताकत मिलता था,
उससे हम चुस्त दुरुस्त रहते थे
बीमारियों से भी लड़ने में सक्षम होते थे,
बीमार भी यदा कदा ही होते थे।
तब आज की तरह फास्ट फूड भी कहां होते थे?
सारे शौक घर में उपलब्ध अनाजों से
मां की कृपा से ही पूरे होते थे।
और तो और मां के हाथों में जैसे जादू होता था,
सिर्फ चूल्हे की रोटियों में ही नहीं
माँ जो भी बनाकर खिलाती थीं
उसमें अपनापन मिश्रित मिठास भी होता,
पहले हम पहले हम का द्वंद्व भी
हम भाई बहनों में खूब होता था,
पर किसी से ईर्ष्या नहीं सबमें लाड़ दुलार होता था।
तभी तो जैसे हमारा पेट ही नहीं भरता था
और बाबा ताऊ चाचा मां दादी ताई चाची
सबके साथ हमारा भोजन
अपने भोजन के बाद भी चलता था।
आज न माँ है, न घरों में चूल्हे
और न महिलाओं में चूल्हा फूंकने की हिम्मत
फिर हाथ से रोटियां भला कौन सेंके
जब मोटे अनाजों से बढ़ रही है दूरियां
और हम सब पर चढ़ गया है आधुनिकता का रंग,
तभी तो आज की रोटियों का रंग
उजला होकर भी लग रहा बदरंग
जिससे पेट तो भरता है पर मन नहीं,
क्योंकि आज की महिलाओं में
कुछ अपवादों को छोड़कर
भोजन निर्माण में वो अपनापन ही नहीं,
जो पुराने समय में था।
ऊपर से सब कुछ मशीनी हो गया है
जिसका प्रभाव हमारे आपके ही नहीं
हम सबके परिवारों में साफ साफ दिखता है।
आज शायद ही कोई परिवार ऐसा हो
जो संपूर्ण स्वस्थ और खुशहाल दिख रहा हो,
क्योंकि हमारे भोजन में पवित्रता और
गृहलक्ष्मियों का आत्मीय भाव शून्य हो गया है,
कारण कि सबके पास समयाभाव जो हो गया है,
चूल्हे की रोटियों का तो अब अकाल ही पड़ गया है।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश