चुप।
बीत गया अब तो काफी वक़्त,
कि अब आप भी चुप,
और मैं भी चुप,
दे चुका हूं सारी दुआएं मैं शायद,
कि अब कलम भी चुप,
और शब्द भी चुप,
ना जाने छाई ये ख़ामोशी कैसी,
कि अब आवाज़ भी चुप,
और जज़्बात भी चुप,
चंद संदेशों में शामिल संगीत था शायद,
कि अब साज़ भी चुप,
और अंदाज़ भी चुप,
रिश्ता ना सही पर जुड़े तो थे,
कि अब लगाव भी चुप,
और जुड़ाव भी चुप,
कहीं ना कहीं तो करीब थे हम,
कि अब दूरियां भी चुप,
और नज़दीकियां भी चुप,
कम ही सही पर होती थी बात,
कि अब जवाब भी चुप,
और सवाल भी चुप,
अजनबी थे सो फिर अंजान हुए,
कि अब जान भी चुप,
और पहचान भी चुप।
कवि-अंबर श्रीवास्तव