चिन्तन के पार चला
अब मैं चिन्तन के पार चला
तज कर मनुहार दुलार चला
अपमान मान से ऊपर उठ, लो जीती बाजी हार चला।
अब फिक्र न रही पराभव की
टूटे त्रिशूल या अजगव की
भौतिकता से मुंह मोड़ लिया
मिट गई चाह मधुरासव की
जो लिया दिया सब भूल गया, बिसराकर सभी उधार चला।
अपमान मान से ऊपर उठ, लो जीती बाजी हार चला।।
अब उम्मीदों का घट फूटा
अब पिण्ड अभावों से छूटा
जो कुछ ढिग था सब लुटा दिया
जिसने चाहा, उसने लूटा
अब अपना अपने पास नहीं, कर अपने पर उपकार चला।
अपमान मान से ऊपर उठ, लो जीती बाजी हार चला।।
अब कौन कहां, मैं क्या जानूं
सचराचर मैं खुद को मानूं
सुधि बिसर गई अपने बल की
कैसे अपना बल पहचानूं
अपनी हर कुण्ठा, लिप्सा पर, करके मैं प्रबल प्रहार चला।
अपमान मान से ऊपर उठ, लो जीती बाजी हार चला।।
मैं परावलंबी रहा न अब
अब अन्तर्धान हो गया रब
पथ की हर अड़चन दूर हुई
मंजिल आएगी जाने कब
अपने बूते सारे जग को, दुत्कार चला, पुचकार चला।
अपमान मान से ऊपर उठ, लो जीती बाजी हार चला।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी