चाहत
समुंदर के किनारे खेलते बच्चों के बनाए घरों को देखता हूं ,
फिर उन घरों को अपनी ज़द में लेकर मिटाती लहरों को देखता हूं ,
कुछ इसी तरह मैं भी ख़यालों के महल बनाता हूं ,
फिर वक्त की मार से मिटती उनकी हक़ीक़त देखता हूं ,
चाहत बच्चों की तरह मासूम पाक होती है ,
शिद्दते ज़िंदगी से हमेशा दो चार होती है ,
हार मान कर कभी थकती थमती नहीं है ,
हमेशा ख़यालों के महल बनाती रहती है ,