चाहतें
चाहतों का आकाश बड़ा है, लेने का भी पात्र बड़ा है
रहे स्मरण पाश बड़ा है, जो फंस गया वो फंसा खड़ा है
हम को क्या हम अर्ध संन्यासी, उलझे वो जो विन्यासी
लोभ मोह से जकड़े विद जन, चकाचौंध तो सत्यानाशी
ऐसा नहीं आरंभ यही था, मूल ज्ञान का भान सही था
ये विलास का कीड़ा अन्यथा, पथ का भी प्रारंभ सही था
उलझ गए फिर सब माया, जब दौलत ने जाल फैलाया
मेरा तेरा तेरी मेरी में ही, मन बुद्धि विवेक सब भरमाया