चाहता बहुत कुछ
चाहता बहुत कुछ देखूं मैं
चाहता बहुत कुछ पाऊं
चाहता भ्रमर की भांति सदा
मैं भी गुनगुनगुन गाऊं
चाहता विहग बन उड़ूं और
मैं दूर-दूर तक जाऊं
संदेश शांति का दुनिया के
सब देशों तक पहुंचाऊं
चाहता कभी नगराज बनूं
मैं नदियां नयी बहाऊं
पशुपति की पावन सेवा में
मैं अपनी आयु बिताऊं
चाहता कभी मैं बनूं सुमन
सारी दुनिया महकाऊं
कुछ परोपकार करके ही
मैं इस जगती से जाऊं
चाहता कभी सैनिक बनकर
सेना का मान बढ़ाऊं
भारतमाता की सेवा में
मैं अपना शीश चढ़ाऊं
फ़ुरसत में बैठे-बैठे मैं
क्या करके कीर्ति कमाऊं
मैं प्रगति-शिखर पर मित्रों
खुद को कैसे पहुंचाऊं?
रच खेल-खेल में तुकबंदी
सोचा जब किसे सुनाऊं
आभासी मित्र अनेकों अब
क्यों इन्हें न अभी पढ़ाऊं ?
महेश चन्द्र त्रिपाठी