चलते चलते
वह चलते पानी से बह जाते हैं, थोड़ा गर उनको आजमाते हैं ।
अपने वजूद से यूँ कतराते हैं, आइना देख के भी घबराते हैं ।
लब हिलते ही जान जाते थे, जो हाल-ए-दिल,
बेफ़िक्र, अब चीखों को भी सन्नाटा कह देते हैं ।
ऐसा भी नहीं कि कोई, रंजिश है उन्हें हमसे,
दुश्मनों से वफादारी , बस निभानी थी उन्हें ।
ये जो इश्क का इक कतरा, तेरी आंखों से झलका है,
मयस्सर है ना मुकद्दर में , जमाना इससे जलता है ।
कांटों का काम है चुभते रहना, उनका अपना मिज़ाज होता है,
चुभन सहकर फिर भी सीने में, कोई गुल उसका साथ देता है ।
@नील पदम्