चमकी बुखार
शिशुओं के सुंदर कोमल नरम बदन में
कम्पित ज्वर के लक्छण दिखने लगे हैं।
बिलख-बिलख कर माताओं के उर,
मलिन वसन समान ही फटने लगे हैं।
कोमल कृशकाय शिशु के क्षीण बदन में
प्राण पखेरू रह-रह कर करे हिंडोला।
माताओं के दृग से अश्रु धार फूट के
दिग-दिगंत में करे अनहद बाबेला।
बूत बने मौन खड़े सब देख रहे हैं,
मौत को चुप्पी के चादर में लपेट रहे हैं।
समय अब उठ के मांग करता है उन से
शिशुओं को मौत के मुँह में किस ने धकेला।
कौन है वो जिस ने नन्हें शिशुओं को
कुपोषण के अंधे कुएं में दर्द के साथ धकेला।
एक दूसरे पे आक्षेप करते ही दीखते है हमको
किससे करे गुहार सब ने छोड़ा उन्हें अकेला।
…सिद्धार्थ