चंद अश़आर
मेरी हस्त़ी की हक़ीक़त तब समझ आई है ,
जबसे मैंने अपने सोच के आईने पर पड़ी धूल हटाई है।
उनकी आंखों में कुछ ऐसी अजीब सी क़शिश है ,
जिसे देखते हैं वो उनका काय़ल हो जाता है।
खुद से क्या रूठता है ? इस जहाँ से रूठ जा ,
शायद तुझे ख़ुदा की कोई सौग़ात मिल जाए।
जो वक्त़ पर ज़िंदगी को समझते नहीं हैं , ज़िंदगी उन्हें समझा जाती है पर तब तक देर हो जाती है।
उस़ूलों की सलीब़ उठाए हम ज़िंदगी की राह पर ख़रामा ख़रामा चलते रहे , पर फ़ितरत के घुड़सवार हमसे आगे निकल गए ।