घूँघट (गीतिका)
घूँघट (गीतिका)
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(1)
हुक्म चला मर्दों का ,घूँघट काढ़े रहना पड़ता है
पुरुष-प्रधान समाज ,औरतों को ही सिर्फ जकड़ता है
(2)
अपनी मर्जी से किसने ,चेहरे पर पर्दा डाला
विवश हुई नारी समाज के ,भीतर छाई जड़ता है
(3)
कैसे बिना ढके चेहरे को ,बाहर तुम निकलोगी
पुरुषों का पुरुषत्व इसी ,लहजे में रोज अकड़ता है
(4)
गुमसुम-सी नारी वह देखो ,जो घूँघट के पीछे है
मुख पर पर्दा परवशता से ,उसकी नित्य झगड़ता है
(5)
अच्छा तो लगता है लेकिन ,कैसे जुबान से कह दे
घूँघट के विरोध में जब भी ,बाहर-वाला लड़ता है
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रचयिता : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451