घन की धमक
जेठ की उतरन में
रात के तीसरे पहर से
दूसरे दिन सूर्यास्त तक
चलती घन की धमक
तेज साँसों का हुँकारा
देवदूत की मानिन्द
चमकता श्यामू का चेहरा
सैकड़ों घोड़ों की ताकत से
घन उठ-उठ कर
रक्त-तप्त लोहे पर गिरता,
पसीने की बूँदें
पड़-पड़ कर लोहा पकता।
तब सम्भव ही न था
बिन श्यामू के कोई लोहा
और बिना लोहा के अन्न,
मगर अब हो चुका है
वो इतिहास में दफन।
प्रकाशित काव्य-कृति : ‘उड़ रहा गॉंव’ में
संकलित “घन की धमक”
शीर्षक रचना की चन्द पंक्तियाँ।
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
टैलेंट आइकॉन 2022-23