हटता नहीं है।
घना सा है कुहरा, जो छँटता नहीं है
वक़्त भी है ऐसा, जो कटता नहीं है।
ख़ुशी के तराने भी खेलते हैं गोद में पर
दर्द है कुछ ऐसा कि ये बँटता ही नहीं है।
कितने पन्ने फाड़े मैंने, इसमें यूँ ही पर
ऐसा भी नहीं है कि मैं लिखता नहीं हूं।
सोचता, कहता, लिखता बहुत हूँ पर
ऐसा भी नहीं कि मैं थकता नहीं हूं ।
मंज़िल की ओर तो निकल आया पर
ऐसा नहीं अभि भटकता ही नहीं हूं।
© अभिषेक पाण्डेय अभि