गूँजने दो किलकारियाँ बचपन की
काग़ज़ की नाव बनाकर तैरता हूँ सागर पार तक।
काग़ज़ का फूल बनाकर चूमता हूँ अकसर सार तक।।
बचपन का खेल सिखाए जीतना हर बाजी प्यार की।
उड़ता हूँ खूब ज़हाजों में गगन के कोने चार तक।।
हरघर अपने सम लगता था ज़रा भी डर ना खौफ़ था।
खुश हो जाया करते थे मिल सभी आदर का शौक़ था।।
चाची-तायी दादा-दादी कहा करती आओ लला।
हर बच्चा प्यारा सुरक्षित और अपना-सा बेखौफ़ था।।
अपने तक ही सीमित सब हो गये मानवता अब कहाँ।
अपनापन बिछुडा़ आत्मा मर गई सौदागर हैं यहाँ।।
छोटे-छोटे बच्चे भी भोग की नादानी हो गये।
सुनके सिहरन दौडे़ तन में ख़बर प्रतिदिन होती जवां।।
बचपन ना छीनो जीने दो अरे! ये मालिक नूर है।
मौजों का सागर उलझन से यही तो होता दूर है।।
बाकी जीवन काँटों की राह-सा इस पृथ्वी लोक पर।
गूँजे किलकारी बचपन की यही खुशियों का पूर है।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
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