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23 Oct 2020 · 1 min read

गुल पत्थरों से मिल कर संगसारी करती है

उड़ने का हौसला नहीं अब दीवार अच्छी लगती है
जीस्त ए सफर में अब उदासी संग संग चलती है

हमारे रंगीन लिबास में ही ढूंढो अब एहले खुशी
ऑंखों के झीलों में तो दिन रात उदासी पलती है

हम जिस जगह से भी हस्ते हुए गुजरे है
खाक वहीं से पहले पहल देखी उड़ती है

उससे मिलना खुशी की बात थी लेकिन
बिछड़े तो खुशी सांसों को मेरे खलती है

उस से कहियो जब से न रहा वो यार मेरा
गुल पत्थरों से मिल कर संगसारी करती है

~ सिद्धार्थ

2 Likes · 1 Comment · 196 Views
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