‘गुरु’ (देव घनाक्षरी)
गुरु चरणों में सदा झुका रहे यह शीश,
गुरु को प्रथम जपूँ फिर भागवत भजन।
गुरु दिए ब्रम ज्ञान मैं अनाड़ी अनजान,
गति नहीं गुरू बिन सत्य ही है यह कथन।
गुरू ही तो खोलें नैन सीखें हम मीठे बैन,
कंचन सा रूप गढ़ें तपा तपा कर बदन।
पूरी होती जब शिक्षा लेते कठिन परीक्षा,
शिष्य सवा सेर होवे यही वो करते जतन।।