#रुबाइयाँ//गुरु की महिमा
गुरु से बढ़कर कौन धरा पर , जो मंज़िल दिखलाता है।
खुद जलता है दीपक बनकर , पर तम दूर भगाता है।
नहीं स्वार्थ निज मन में रखता , ज्ञान सिखाता है सबको;
भविष्य शिष्यों का उज्ज्वल कर , फूला नहीं समाता है।
लोहे को कुंदन कर देता , मन-विष अमृत बनाता है।
पथ के काँटें फूल बनाकर , सुरभियुक्त कर जाता है।
कहे कबीरा गुरु की महिमा , बढ़कर मालिक से होती;
उस तक जाने का मार्ग यहाँ , गुरु ही तो बतलाता है।
गुरु के चरणों में स्वर्ग मिले , शुभ कर्मों का दाता है।
समदर्शी आचरण बनाए , मन का भेद भगाता है।
सुरभित करता मन का कोना , आदर मान सिखाए जो;
इंद्रधनुष-सा करता जीवन , सद्गुरु वह कहलाता है।
सुप्त-शक्तियाँ जोश जगाए , उत्सुकता सिखलाता है।
प्यासे मन की प्यास बुझाने , ज्ञान कूप हो जाता है।
चाणक्य स्वयं को कर लेता , द्वार जीत के खुल जाते;
जीत दिलाकर चंद्रगुप्त को , विजयी खुद हो जाता है।
#आर.एस.’प्रीतम’