गुमां है ।
उसे अपनी अदाकारी पे इतना गुमान है
गर वो इंसान है तो क्यों नही इंसान है ।
हर कोई अपने दर्द लिए घूम रहा है यहाँ
ये बस्तियां अब क्यों इतना परेशान है ।
तुम्हारी अदब , तुम्हारी बातें बता रही है
हमसे मिलता जुलता ही खानदान है ।
अंधेरों में ज़िन्दगी पूरी गुजार दी हमने
हमारे घर मे ना कोई रोशनदान है ।
मत मारो उसे आख़िर गलती क्या है उसकी
वो इंसान जरूर है मगर बदजुबान है ।
हमारे ही लफ्ज़ गुनगुना रहे हो आजकल
तुम्हारे मुँह में भी क्या हमारी जुबान है ।
घूट घूट कर जी रहे है क्यों यहा ‘हसीब’
ये दुनिया अब दुनिया नही शमशान है ।
– हसीब अनवर