{{ गुनाह की ये कहानी क्यों है }}
गुनाह की ये कहानी क्यों है
बेबस औरत की ज़िन्दगानी क्यों है
सृजन कर के भी असहाय है
उसका चर्चा सब की जुबानी क्यों है
माटी सा होता है उसका चरित्र
आँचल के पार झांकती हर नज़र विचित्र
उसको ही सब दाव पे लगते
अग्निपरीक्षा देती होकर भी पवित्र
हर रिस्ते का है वो लाज रखती
अपने हर दर्द को छुपा के रखती
जाने कितने बाते सुन के भी
होंठो पे सदा मुस्कान वो रखती
कितने ही रूप होते है नारी के
संसार कहाँ सजता है बिन नारी के
फिर भी उसे तिरस्कार है मिलता
अपना वजूद कहा तरासोगे बिन नारी के
आँचल में है दूध का सागर
आँखों जैसे नदिया में दो गागर
ममता के रूप में माँ बनी
पीड़ा सह के भी न किया उजागर
जीवन भर कितना वो अपमान है सहती
ज़ुबा से मगर कुछ न कहती
आंखों में सपने के झरोखे सजाए
आपनो के बीच भी पर्दे में रहती
एक छोटी से चोट से जो डरती
माँ बन कर हर आफत से लड़ती
बच्चो में तरासती खुद को
शरीर पे आए निशान पे भी गर्व है करती
अपने सृजनकर्ता का वो स्वाभिमान बनी
प्रेम किया तो राधा सी प्रियसी बनी
भाई के कलाई का वो मान है
कभी दुर्गा, कभी सरस्वती तो कभी चण्डी बनी
हर परिस्थिति में ढली है बेटी
हर आँगन की छांव है बेटी
चिड़िया बन उड़ जाती है एक दिन
बाबुल के पगड़ी का मान है बेटी
मत नोचो तुम उसकी मासूमियत को
न करो मैला उसकी रूहानियत को
उसके दामन को खींच के
मत दिखाओ अपनी हैवानियत को
परुषरार्थ के नाम पर न करो अत्याचार
मत करो उसपे तेज़ाब की बौछार
क्यों खेलते हो जीवन से उसके
अपने स्वार्थ में क्यों बनाते हो उसे लाचार
ये तो बस कहने की ही बात है
बेटा बेटी एक जैसी ही सौगात है
सदियों से यही होता आया है
मर्द के आगे कहाँ उसकी औकात है