गीत
गरम जलेबी
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नहीं फटकती
घर-आंगन में
आज कहीं गौरैया
उजड़ गये हैं
टँगे घोंसलों
के वे पावन अड्डे
उभर गये हैं
दीवारों पर
लामबंद के खड्डे
जिन्स-पैन्ट के
लिये झगड़ती
प्राय: धूमकधैया
अभी अँगूठा
छाप रही है
गाँवों की अगुआई
हस्ताक्षर का
लाभ उठाकर
लूट रही पुरवाई
राजकाज का
पाठ पढ़ाता
नीतिकार छुटभैया
है विधायिका
गरम जलेबी
चील झपट्टा मारे
पेट पकड़कर
डटे सड़क पर
कई भूख के नारे
राजभवन का
सपना देखे
कैसे बेर-कटैया
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ