*गीता के दर्शन में पुनर्जन्म की अवधारणा*
गीता के दर्शन में पुनर्जन्म की अवधारणा
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गीता का आधारभूत दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। देखा जाए तो पुनर्जन्म ही गीता के समूचे चिंतन का आधार है। इस शरीर के नष्ट हो जाने को सब प्रकार से जीवन का अंत मान लेना भारी भूल है, क्योंकि मृत्यु के बाद भी जीवन की अनंत राहें खुल रही हैं।
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शरीर नश्वर, आत्मा अमर
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व्यक्ति के जीवन में बचपन, जवानी और बुढ़ापा आता है। एक दिन शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, तब उसके बाद आत्मा शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण कर लेती है। दूसरे अध्याय के अनेक श्लोक आत्मा के अजर और अमर होने का संदेश दे रहे हैं। उनके अनुसार जैसे व्यक्ति अपने कपड़े बदल लेता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा नई देह को प्राप्त करती है। यह नया जन्म है। यह तभी संभव है, जब मनुष्य के शरीर में एक अविनाशी आत्मा निवास करती है । शरीर गल-सड़ और जल जाता है, लेकिन आत्मा को किसी भी प्रकार से कोई नष्ट नहीं कर सकता। शरीर के नष्ट होने के बाद भी वह जीवित रहती है और अगले जन्म के लिए तत्पर हो जाती है।
आत्मा की अजरता और अमरता को बार-बार कई रूपों में गीता ने प्रस्तुत किया है। उसका कहना है कि केवल तन का विनाश होता है। आत्मा नहीं मरती है। न आत्मा मरती है और न आत्मा किसी को मारती है। यह तो केवल शरीर है जो मारता और मरता है।
न आत्मा जन्म लेती है और न मरती है। शरीर के मरने का शोक कैसा ? जिसने जन्म लिया है, वह एक दिन अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है। लेकिन वह अविनाशी आत्मा के रूप में अपने अस्तित्व को हमेशा बनाए रखता है।
दूसरे अध्याय के निम्नलिखित श्लोक ध्यान देने योग्य हैं:-
(13)
बचपन यौवन प्रौढ़ ज्यों, होती है नर-देह
आत्मा पाती है नया, तन भी निस्संदेह
(18)
आत्मा मरती है नहीं, तन का हुआ विनाश
युद्ध हेतु अर्जुन बढ़ो, पाकर ज्ञान-प्रकाश
(19)
आत्मा मरती-मारती, कहना है अज्ञान
व्यक्ति न मरता-मारता, सच से सब अनजान
(20)
आत्मा लेती जन्म कब, मरने का क्या काम
यह शरीर जन्मा-मरा, सौ-सौ इसके नाम
(21)
आत्मा जब मरती नहीं, वध की फिर क्या बात
अविनाशी शाश्वत सदा, फिर कैसा आघात
(22)
मरने का मतलब यही, बदले देह नवीन
कपड़े बदले आदमी, आत्मा अतः प्रवीन
(23)
आत्मा कटे न शस्त्र से, गला न पाता नीर
जले न आत्मा अग्नि से, सोखे नहीं समीर
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बार-बार जन्म लेने का रहस्य
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मनुष्य के लिए यह बहुत अचरज-भरी बात लगती है कि वह मरने के बाद पुनः जन्म लेगा। उसे यह भी आश्चर्यजनक लगता है कि इस जन्म से पूर्व भी उसका कोई जन्म हुआ था। लेकिन यही सत्य है कि हर व्यक्ति के न जाने कितनी बार जन्म हो चुके हैं और न जाने कितनी बार वह मृत्यु को भी प्राप्त हुआ है। यह क्रम लगातार चल रहा है। इसका आभास किसी भी व्यक्ति को नहीं होता कि उसका पूर्व जन्म किस रूप में हुआ था। वह तो अपने वर्तमान जन्म को ही सब कुछ मानता है, जबकि वास्तविकता यह है कि आत्मा जो शरीर धारण करती है, उसको न पिछली बातों का पता होता है और न आगे आने वाले जन्मों के बारे में ही किसी को ज्ञात होता है।
जो जन्मे मरते कभी, मरकर जन्म-प्रभात
अटल सदा से तथ्य है, नहीं शोक की बात
2/27
आदि अंत अव्यक्त है, दिखता मध्य समाज
इसमें शोक-विलाप क्या, कल भी था यह आज
2/28
कृष्ण कहते हैं कि केवल मैं ही जानता हूॅं कि तुमने कितनी बार जन्म लिया है, किन-किन रूपों में लिया है और भविष्य में तुम अभी और कितनी बार जन्म और मरण के चक्र में फॅंसोगे।
जन्म लिए अनगिन यहाँ, मुझको सब कुछ ज्ञात
तुझे पता अर्जुन नहीं, लेकिन है यह बात
4/5
जन्म लिया या हो चुके, होंगे सब का ज्ञान
मैं प्राणी सब जानता, वह मुझ से अनजान
7/26
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स्वर्ग-लोक अस्थाई है
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व्यक्ति को मृत्यु के बाद स्वर्ग लोक मिलता तो है लेकिन वह एक अस्थाई व्यवस्था है। इस जीवन में जो अच्छे कार्य व्यक्ति ने किए हैं, उसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग में निवास करके आनंद की प्राप्ति का अधिकारी बन तो जाता है; लेकिन जब उसके पुण्य समाप्त हो जाते हैं तब वह पृथ्वी पर वापस दुखों को भोगने के लिए लौटकर आता है। भौतिक कामनाओं के साथ व्यक्ति जो सत्कर्म अपने जीवन में करता है उससे उसे स्वर्ग लोक मिलता है। स्वर्ग लोक का आनंद मोक्ष, निर्वाण अथवा ईश्वर की प्राप्ति का सर्वोच्च आनंद नहीं है। मुख्य बात यह है कि स्वर्ग एक थोड़े से समय के लिए प्राप्त होने वाली सुखमय स्थिति है।
अध्याय 9 देखिए:-
स्वर्ग-लोक मिलता उन्हें, करते सुख उपभोग
पाप मुक्त जो जन करें, यज्ञों का उपयोग
9/20
पुण्य गया फिर स्वर्ग से, लौटे धरती लोक
जन्म-मरण पर कब रुका, यह ही केवल शोक
9/21
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अंतिम समय महत्वपूर्ण है
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जीवन में अंतिम समय बड़ा महत्वपूर्ण है। पुनर्जन्म का निर्धारण काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि मृत्यु के अंतिम क्षणों में व्यक्ति किस प्रकार का चिंतन कर रहा होता है। अगर वह परमात्मा का ध्यान कर रहा होगा तो उसे परमात्मा के अनंत लोक की प्राप्ति होगी। अगर वह ओंकार का जाप करता है, तब उसे जन्म और मरण के चक्र से मुक्ति मिल सकती है। इसी तरह अगर मृत्यु के समय उसके प्राण दोनों भौंहों के बीच में स्थित हो जाते हैं और ऐसी अवस्था में उसकी मृत्यु होती है, तब उसे निर्वाण प्राप्त होने की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती हैं।
मृत्यु समय जिसने किया, केवल मेरा ध्यान
मुझ में वह मिलता सदा, पक्का समझो ज्ञान
8/5
अंतिम क्षण की जो दशा, जिसमें तन का त्याग
जन्म वही अगला मिले, जिससे जन का राग
8/6
भौंहों बीच टिका हुआ, अंतिम क्षण में प्राण
परम पुरुष फिर प्राप्त हो, योगी को निर्वाण
8/10
जपते अक्षर ओम जो, उन्हें परमगति प्राप्त
तन त्यागे जग से गए, उच्च लक्ष्य चहुँ व्याप्त
8/13
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आत्मा केवल साक्षी है
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आत्मा को देह के क्रियाकलापों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। देह काम करती है और आत्मा केवल उसे काम करते हुए देखती है। आत्मा साक्षी है। आत्मा दृष्टा है। यह मूल तथ्य है, जिसे विस्मृत नहीं किया जा सकता।
आत्मा करती कर्म कब, साक्षी की पहचान
कर्म प्रकृति ने सब किए, मूल तथ्य यह जान
13/29
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सृष्टि का अंत और उदय
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ईश्वर आत्मा और शरीर को इस संसार में जन्म-मरण के चक्र में घूमने के लिए उत्पन्न करता है। पुनर्जन्मों के चक्र में फॅंसे हुए वह समय व्यतीत करते रहते हैं। यह चक्र, इसकी रचना और उद्देश्य मनुष्य की साधारण बुद्धि में आ आना कठिन है। गीता कहती है कि ब्रह्मा इस सृष्टि को जन्म देते हैं, जिनकी आयु सौ वर्ष है । ब्रह्मा का एक दिन और एक रात लाखों वर्षों के होते हैं। इस प्रकार सौ वर्ष की सुदीर्घ आयु के बाद यह पूरी सृष्टि ईश्वर में विलय हो जाती है। और फिर नए सिरे से यही खेल चालू होता है
चक्र रुका लय हो गए, मुझ में भूत तमाम
फिर बाहर आते सभी, क्रम चलता अविराम
9/7
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आत्मा का शरीर-स्थानांतरण
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एक शरीर से दूसरे शरीर में आत्मा का प्रवेश करना कुछ ऐसा ही है, जैसे वायु अपने साथ गंध को लेकर बहती है। इसी पद्धति से आत्मा एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है। इसे कोई भी साधारण व्यक्ति नहीं समझ पाता। देखना और महसूस करना तो बहुत दूर की बात है।
धारण तन आत्मा करे, या दे तन को त्याग
मन इंद्रिय का संग ज्यों, पवन-गंध अनुराग
15/8
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पुनर्जन्म से मुक्ति
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सामान्यतः व्यक्ति पुनर्जन्म के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता। कारण यह है कि मनुष्य का जीवन कर्म-प्रधान है तथा कर्म करते समय कोई न कोई दोष उसके साथ इस प्रकार से संयुक्त हो ही जाता है कि उसकी पूर्ति के लिए उसको एक दूसरा जन्म लेना आवश्यक हो जाता है। लेकिन अगर व्यक्ति कर्मफल के सिद्धांत को समझना आरंभ कर दे, तो पुनर्जन्म से मुक्ति भी संभव है।
कर्मफल के सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति को केवल कर्म करने की ही स्वतंत्रता है। कर्म करने का ही अधिकार है। लेकिन फल के प्रति किसी प्रकार की भी आसक्ति उसे नहीं रखनी चाहिए। वस्तुत: फल के मामले में वह एक प्रकार से परतंत्र है।
कर्म सिर्फ अधिकार है, फल-आसक्ति विकार
फल की इच्छा से रहित, उचित कर्म आधार
2/47
पुनर्जन्म से मुक्ति सहज नहीं होती। सब प्रकार के मोह को त्यागना भी पड़ता है और सुख-दुख और हानि-लाभ से परे अपनी वृत्ति को बनाना होता है। मन पर नियंत्रण करते हुए क्रोध को दूर करके ही आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव है।
सम यदि सुख-दुख हार-जय, नफा और नुक्सान
पाप लगेगा फिर नहीं, रण को कर प्रस्थान
2/38
यह कार्य एक जन्म में पूरा हो पाना लगभग असंभव है। कई जन्मों की साधना करनी पड़ती है, तब जाकर आत्म-साक्षात्कार हो पाता है।
किया जन्म-जन्मान्तरों, जिसने खुद को शुद्ध
उसे परम गति मिल सकी, होता पूर्ण प्रबुद्ध
6/45
समय आने पर स्वयं ही व्यक्ति को आत्मज्ञान होता है। उसकी साधना अवश्य चलती रहनी चाहिए। अगर कार्य अधूरा रह गया है तो भी विशेष चिंता की बात नहीं है। जब धरती पर व्यक्ति को अगला जन्म मिलेगा तो ईश्वरीय व्यवस्था कुछ इस प्रकार बन जाएगी कि वह आध्यात्मिक चेतना अपने नए जन्म के परिवेश में स्वयं ही प्राप्त कर लेगा। इस तरह जहॉं से उसकी साधना रुकी थी, वह वहीं से आगे का क्रम शुरू करेगा। सात्विक तथा अध्यात्म-निष्ठ परिवार में जन्म लेना इसीलिए बड़े भाग्य से व्यक्ति को प्राप्त होता है। इससे उसे आगे की यात्रा करने में बहुत सरलता हो जाती है तथा उसके बाद पुनर्जन्मों के चक्र से भी वह किसी भी क्षण उच्च अवस्था प्राप्त करके मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
पाते हैं जन पूर्णता, समय बड़ा बलवान
योगी जब आता समय, पाता है खुद ज्ञान
4/38
योग अधूरा यदि रहा, आता फिर भी काम
नया जन्म शुचि घर मिला, शुभ परलोक विराम
6/41
दुर्लभ जन्म महान है, मिले योग-परिवार
पाता है सद्भाग्य से, जन ऐसा संसार
6/42
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परमात्मा सदैव रहता है
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सबमें ईश्वर बस रहा, होता कभी न नाश
वस्तु नष्ट होती मगर, रहता दिव्य प्रकाश
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सृष्टि में चाहे कितनी उथल-पुथल हो, लेकिन जो सनातन तत्व है अर्थात ईश्वर की विद्यमानता है; उसमें कोई कमी नहीं आती। उसका नाश नहीं होता। परमात्मा सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। वह सब शरीरों में उपस्थित है। वह भीतर और बाहर हर जगह है। उसकी विराट सत्ता को पहचानना ही पुनर्जन्म से मुक्ति का एकमात्र मार्ग है।
(( इस लेख में साहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘संपूर्ण गीता : रवि प्रकाश के 700 दोहे’ से गीता के दोहों के उद्धरण लिए गए हैं) ))
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451