गांव लौट चलें
अंगूरी उदास और गहरे सोच में बैठी थी, किसी के आने की आहट से ध्यान भंग हो गया, सामने से सावित्री जीजी आते दिखाई देती हैं, अपने को संभालते हुए उठ खड़ी हुई, आओ जीजी गले मिल बैठने के लिए शतरंजी बिछा दी। बहुत दिनों में खबर ली जीजी अच्छी तो हो? हां सब भगवान की दया है, कट रही है तू कैसी है अंगूरी? बहुत दिनों से खबर नहीं मिली सोचा चलो मिल आऊं, तेरा घर भी बहुत दूर पड़ता है, एक पूरब एक पश्चिम। सब ठीक तो है? ठंडी सांस लेते हुए हां सब ठीक ही है जीजी, अंगूरी चुप हो गई। अंगूरी तुम कुछ उदास दिख रही हो? यह माथे पर काहे की चोट लग गई, अंगूरी की आंखों में आंसू आ गए, बहुत देर सिसकती रही। अंगूरी बताओ तो क्या बात है? क्या बताऊं जीजी मैंने बहुत नाहीं करी थी शहर में आने के लिए, मेरी एक न चलने दई अब देखो यहां किराए का कमरा, मेहनत मजदूरी करते हैं, कभी रोजी लगी कभी नहीं लगी, बरसात में बहुत दिनों से काम नहीं लगा, बनिया के पहले के पैसे चढ़े हैं, उधार नहीं दे रहा, किराए के पैसे भी चढ़ गए हैं। गांव में मोड़ा मोड़ी स्कूल में पढ़ रहे थे, अब यहां मोड़ी स्कूल जाते बच्चों को देखती रहती है, मन मसोसकर रह जाती है, भूखे मरने की नौबत आ गई है जीजी। ऊपर से सौबत में तुम्हारे भैया, शराब पीना और सीख गए हैं। रात में ये बातें हमने कहीं, सो देखो करम फोर डालो, कहते कहते जीजी के गले लग गई, क्या बताएं जीजी जैसी गांव में मेहनत मजदूरी कर रहे थे, सोई यहां कर रहे हैं, लेकिन यहां परेशानी है, यहां कौन धरो है अपनो। वहां तो न हो तो उधार सुधार मिल जाता है। गांव में कच्चा ही सही खुद का घर था, बाड़ा था सब्जी के बेला लगा लेती थी, बकरियां थी, मैं भी कुछ मेहनत मजदूरी कर लेती थी, खुली हवा पानी थे, ये नाले के किनारे, दिन रात बदबू, सीलन, मच्छर, गर्मी, पीने का पानी तक नहीं। बिना पैसे के शहर में जिंदगी नरक है। मैं और मोड़ा मोड़ी बीमार हो गए, पढ़ाई लिखाई सब ठप, न आगे की राह दिखाई देती जीजी, इनके बूढ़े मां बाप गांव में पड़े हैं, बहुत परेशान हो गए हम तो। मैं रात में इनसे यही कह रही थी कि अपन गांव लौट चलें, यहां से तो सुखी रहेंगे जीजी, गांव में आज भी आंख में शरम है, दया भाव है, एक दूसरे की मदद हो जाती है, यहां शहर में कौन अपनो है, ठंडी सांस लेते हुए अंगूरी चुप हो गई। सावित्री जीजी भी अंगूरी की दुख भरी दास्तान सुनकर दुखी हो गईं, निशब्दता को तोड़ते हुए जीजी बोलीं, अंगूरी हिम्मत रखो, हम हैं आने दो रामखेलावन को, हम बात करेंगे, साड़ी के पल्लू से कुछ पैसे निकालते हुए बोलीं, लो अंगूरी कुछ दुकान से सामान ले आओ, सब्जी भाजी भी लेती आना अपन भोजन बनाएं, आज रामखेलावन के आने तक मैं यही रुकती हूं, अंगूरी नहीं जीजी तुम्हारे पैसे हम नहीं लेवें, पाप में मत डारो, कछु दे नहीं सकते तो ले कैसे सकते हैं। अंगूरी संकोच को छोड़ो हम दे नहीं रहे, हम तुमसे वापस ले लेंगे अभी उठो जाओ। अंगूरी कुछ राशन साग सब्जी ले आई, बच्चों को कुछ गोली बिस्कुट भी ले आई, दोनों ने मिलकर भोजन बनाने में लग गई। अंधेरा होने लगा था, रामखेलावन उदास और खाली हाथ आज फिर घर को आ गया। पैसे थे नहीं कोई पीने पिलाने वाला भी नहीं मिला। सावित्री जी जी को देखकर गदगद हो गया, पैर छूकर जमीन पर बैठ गया जीजी कब आईं, अरे जीजी कब आईं, तुम खबर नहीं लोगे तो जीजी तो तुम्हारी खबर जरूर लेगी, हां और रामखेलावन तुम दारू कब से पियन लगे, तुमने बहू को कैंसे मारा? एक के बाद एक कई सबाल दाग दिए, रामखेलावन नीचे नजरें किए सब सुनता जा रहा था। सब सुनने के बाद धीरे से बोला क्या बताएं जीजी, अच्छा सोच कर शहर आए थे, बकरियां बेच दी, मां बाप को भी छोड़ आए, कोई परिणाम नहीं निकला और उल्टा ही हो गया। बिना पैसे के शहर में जीवन नर्क समान है जीजी बाई। अंगूरी सही कहती थी, इस नर्क जिंदगी से गांव लाख दर्जे अच्छा है। क्षमा करो जीजी मैं अंगूरी से भी माफी मांगता हूं, अब कभी दारू को हाथ नहीं लगाऊंगा मैंने मन बना लिया है, अब हम अपने गांव लौट जाएंगे। सरकारी स्कूल में बच्चे भी पड़ जाएंगे माता-पिता भी परेशान नहीं होंगे, फिर बकरियां खरीद लेंगे, अंगूरी मेरा पहले भी हाथ बटाती थी। जीजी हम सब कल ही गांव को रवाना हो रहे हैं, तुम अच्छी आई तीनों की आंखों में खुशी आंसू छलक आए। सब ने प्रेम से भोजन किया तीनों मिलकर अपना घरेलू सामान बांधने लगे।
सुरेश कुमार चतुर्वेदी