“गांव की बुढ़िया मां”
गांव के पावन मंदिर से,
घंटे की मृदु ध्वनि गुंज रही,
दूर क्षितिज को छूती देखो,
नभ धरती को चूम रही,
चित्त में ऐसी जगी जिज्ञासा,
कैसी भीड़ लगी है आज!
चैत मांस की पूर्णिमा,
धुआं उठ रहा सर ताज,
स्वर्ण धातु सा गुम्बद चमके,
बैठी नीचे बुढ़िया मां,
दहिने बैठे पवन सुत,
कुछ दूर विराजे भोलेनाथ,
अमृत धार बहे पग से,
नव उर्जा का सृजन बनी,
संकट हर्ता तन-मन का,
तू है मां जगत जननी।।
राकेश चौरसिया