ग़म का सागर
ग़म के सागर में क्यों खुद को डुबोया जाये।
क्यों न आंसूओं को माला में पिरोया जाये।
बात बात पर रूठने की यू है आदत उनकी
कब तलक उनको मनाने को रोया जाये।
बहुत धीरे कदम उठ रहे हैं मंजिल की तरफ
क्यों न पांव में किसी कांटे को चुभोया जाये।
थक गया हूं रातों को जाग जाग कर मैं
क्यों न मीठे सपनों में कहीं खोया जाये।
बहुत बेताब है सीने में धड़कता हुआ ये दिल
चलें आखिरी सफर पे और सोया जाये।
सुरिंदर कौर